जन–सुझाव को भूलते दल
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विवाद ही विवाद के बीच संविधान के प्रारम्भिक मसौदे के ऊपर सुझाव संकलन किया गया । श्रावण ४ और ५ गते को सार्वजनिक छुट्टी (सरकारी छुट्टी) देकर किया गया सुझाव संकलन एक प्रकार से जनमत–संग्रह भी है । सुझाव संकलन कार्य रोकने के लिए कुछ मधेशवादी और जनजाति सम्वद्ध समूह ने अवरोध भी किया । उसके बावजूद भी दो लाख से अधिक जनता ने मसौदा के ऊपर अपना सुझाव दिया है । लेकिन उक्त सुझाव संकलन १६ बुँदे समझौता के पक्षधर (नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले, एकीकृत नेकपा माओवादी और मधेशी जनअधिकार फोरम लोकतान्त्रिक) चार राजनीतिक पार्टियों का नौटंकी तो नहीं है ? यह प्रश्न उठ रहा है । क्योंकि सुझाव संकलन के क्रम मे जनता ने जिस तरह अपना मत दिया है, वह भावी संवि
धान में प्रतिविम्बित होने की सम्भावना कम होती जा रही है ।
सुझाव संकलन के क्रम में आम जनता ने हिन्दू राष्ट्र, प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख (राष्ट्रपति वा प्रधानमन्त्री), सीमांकन सहित का संविधान, संघीय राज्य की कम संख्या (निर्धारित आठ प्रदेश से कम), नागरिकता की सहज व्यवस्था आदि के पक्ष में अपना सुझाव दिया है । जनता का यह सुझाव, गत जेठ २५ गते चार दलों के बीच हुए १६ बुँदे समझौता के विपरित है । इसीलिए ये चार दल जनता के सुझाव के प्रति गम्भीर नहीं दिखाई दे रहे है । वो १६ बुँदे समझौता के अनुसार ही नया संविधान जारी करना चाहते हैं । सुझाव संकलन के बाद एक प्रकार से नयाँ जनमत निर्माण हुआ है, उसके बाद भी १६ बुँदे ही महत्वपूर्ण कह कर हठ करना प्रजातान्त्रिक चरित्र नहीं है । इसीलिए चार दलों का एकपक्षीय क्रियाकलाप समस्या समाधान के प्रति गम्भीर नहीं दिखाई देता । जिसके चलते और भी अधिक राजनीतिक द्वन्द्व हो सकता है ।
हाँ, राज्य का कोई भी धर्म नहीं होता । राज्य के भीतर रहे सभी धर्मावलम्बी का संरक्षण करना राज्य का दायित्व बनता है । लेकिन बहुंख्यक हिन्दू धर्मावलम्बी (८० प्रतिशत से अधिक) रहे इस देश में उन लोगों की भावना को सम्बोधन नहीं करना घातक हो सकता है । एक निश्चित जाति, भाषा और समुदाय की पहचान संविधान में सुनिश्चित करने का प्रयास हो रहा है । लेकिन बहुसंख्यक हिन्दूओं की पहचान अस्वीकार करना कहाँ तक ना इन्साफी है ? अगर ऐसा होगा तो अवसरवादी तत्व सक्रिय होते हैं । और जनता में रहे हिदूत्व सम्बन्धी भावना को गलत प्रयोग हो सकता है । ऐसे लोग हिन्दूओं में रहे भावनात्मक आवेग को भड़का कर राजनीतिक उद्योग में स्थापित होना चाहते हैं । कमल थापा और खुमबहादुर खड्का जैसे कुछ नेता इस का संकेत भी दे चुके हंै । लेकिन सोलह बुँदे समझौता के पक्षधर एमाओवादी धर्म निरपेक्षता ही चाहता है । माओवादी जनता की भावना मुताबिक इस विषय को सम्बोधन करना नहीं चाहता ।
इसीतरह दूसरा विषय है, प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी के प्रति बढ़ती जनचाहना । नेपाल में दो दशक से संसदीय शासन प्रणाली प्रयोग में हैं । इतिहास साक्षी है कि २४ वर्ष से जारी इस संसदीय व्यवस्था में २१ बार प्रधानमन्त्री परिवर्तन हो चुका है । इसलिए जनता राजनीतिक स्थिरता चाहती है और पाँच साल तक एक ही पार्टी और व्यक्ति को वह सरकार में देखना चाहती हैं । संसदीय व्यवस्था के विकृत राजनीति से जनता आजादी चाहती है । इसीलिए तो जनता ने प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी के पक्ष में अपना मत जाहिर किया । लेकिन संविधानसभा में रहे सब से बड़े दल नेपाली कांग्रेस इस प्रणाली के विपक्ष में हैं । उस पार्टी के शीर्षस्थ नेतृत्व को संसदीय प्रणाली के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता । इसी तरह नेकपा एमाले के वर्तमान नेतृत्व भी प्रत्यक्ष कार्यकारी के पक्ष में नहीं है, वह कांग्रेस के पक्ष में दिखाई देते हैं । इसलिए यह दो पार्टी जनता से प्राप्त सुझाव को अनदेखा कर रहे हैं । जिसके कारण आम जनता राजनीतिक दल के प्रति सकारात्मक नहीं है । जिस तरह हिन्दू धर्म के प्रति आस्थावान बहुसंख्य जनता आज कमल थापा और खुमबहादुर खड्का के प्रति आकर्षित हो रही है, उसी तरह कल वही जनता, प्रत्यक्ष कार्यकारी चुनने के उनकी अधिकार से वञ्चित रखने के कारण अन्यन्त्र भड़क सकते हैं । इस तथ्य को हमारे राजनीतिक दल भूल रहे हैं । लोकतन्त्र के नाम में चिल्ला–चिल्ला कर भाषण करनेवाले हमारे राजनीतिक दल और उनके नेता जनता से प्राप्त सुझाव को ही अस्वीकार करते हैं तो यह कैसा लोकतन्त्र ? यह प्रश्न उठ रहा है ।
इसी तरह जनता से प्राप्त तीसरा सुझाव है– सीमांकन–नामांकन सहित का संविधान आना चाहिए । अर्थात् सीमांकनविहीन संविधान जनता को स्वीकार्य नहीं है । लेकिन जनता से प्राप्त इस सुझाव के प्रति हमारे राजनीतिक दल गम्भीर नहीं हैं । सीमांकन सम्बन्धी विषय को लेकर कुछ मधेशवादी दलों ने मसौदा बहिष्कार किया है । सर्वोच्च अदालत ने भी सीमांकन विहीन संविधान जारी करने से पाबन्दी लगा दी है । लोकतन्त्र में सर्वोच्च अदालत द्वारा जारी फैसला को अस्वीकार करने वाले और जनता से प्राप्त सुझाव को भी सम्बोधन नहीं करनेवालें राजनीतिक दल और उनके नेता लोग कैसे प्रजातान्त्रिक हो सकते हैं ? इसीलिए जनता से प्राप्त महत्वपूर्ण सुझाव को सम्बोधन करना ही चाहिए । नहीं तो राजनीतिक दल के प्रति बढ़ते अविश्वास के कारण नयाँ विद्रोह जन्म ले सकता है ।
सोलह बुँदे समझौता में आठ प्रदेश का संघीय राज्य होने का दावा किया गया है । लेकिन जनता चाहती है कि उक्त संख्या कम किया जाए । जनता का मानना है कि नेपाल की भौगोलिक स्थिति और आर्थिक पूर्वाधार के कारण ज्यादा राज्य होना ठीक नहीं हो सकता । एक समय १४ संघीय राज्य बनाने के लिए तैयार एमाओवादी जनता से प्राप्त यह सुझाव गम्भीरता से नहीं ले रहा है । ऊपर में उल्लेखित सुझाव तो सभी का साझा सुझाव है । जाति, भाषा, समुदाय और वर्ग विशेष, पेशागत संघ–संगठन आदि ने भी अपनी–अपनी तरफ से सुझाव दिया है । उसमें से सबसे ज्यादा सुझाव नागरिकता के सम्बन्ध में हैं । विशेषतः महिला अधिकारकर्मी और मधेशवादी दल नागरिकता सम्बन्धी प्रावधान में असन्तुष्ट हैं । वे लोग मानते हैं कि अगर प्रारम्भिक मसौदा को ही संविधान बना दिया जाए तो लाखों व्यक्ति नागरिकता विहीन हो जाते हैं ।
इसीतरह, एक तरफ हिमाल, पहाड़ और तराई को मिला कर साझा प्रदेश बनाने के लिए सुझाव आया है तो वहीं उसके ठीक विपरित तराई के भू–भाग को पहाड़ से अलग रखने का सुझाव भी आया है । हैं तो दोनों नागरिक के ही सुझाव । लेकिन आपस में विरोधाभास इस तरह के सुझाव को सही सम्बोधन करना सिर्फ जटिल ही नहीं, असम्भव दिखाई देता है । क्योंकि एक सुझाव को सम्बोधन करना, दूसरे सुझाव के विरुद्ध हो जाता है । २०६२÷६३ में सम्पन्न जनआन्दोलन के बाद सरकार ने विभिन्न समूह से इस तरह के विवादास्पद समझौते कुछ ज्यादा ही किये हैं । वह सभी समझौता कार्यान्वयन करना असम्भव है । क्योंकि एक समझौता कार्यान्वयन करने से दूसरे को चोट पहुँचती है । विशेषतः विभिन्न समूह में विभाजित हो कर किया गया मधेश आन्दोलन (क्षेत्रीय आन्दोलन) और जनजाति आन्दोलन (जातीय आन्दोलन) के बाद हुए समझौता विवादास्पद है । ऐसा होना तत्कालीन राजनीतिक अदूरदर्शिता थी । आज वही राजनीतिक अदूरदर्शिता का शिकार बन रहा है, नेपाल । इसीलिए संविधान निर्माण करते वक्त भी इतिहास में हुए समझौता, वर्तमान की परिस्थिति और जनचाहना को मद्देनजर करते हुए सम्वेदनशील होना चाहिए, नहीं तो संविधान कार्यान्वयन होना मुश्किल है ।
इसी तरह दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव है– सभासद और मन्त्री बनने के लिए शैक्षिक योग्यता निर्धारण करना चाहिए । सब जानते हैं कि यह सुझाव हमारे वर्तमान नेताओं से सम्बोधन नहीं हो सकेगा । क्योंकि वर्तमान राजनीति में ऐसे नेताओं कि पकड़ है, जिस को भूखमरी से आत्महत्या करने के लिए बाध्य जनता की पीड़ा दिखाई नहीं देती । और ऐसे नेता पूर्वमन्त्री, प्रधानमन्त्री एवं सरकारी संयन्त्र में रहे उच्चपदस्थ व्यक्तियों को आजीवन सरकारी सेवा–सुविधा दिलाने के लिए मसौदा बनाते हैं । इस तरह के नेताओं से हम कैसे विश्वास करें कि वह अपनी योग्यता संविधान में लिखने के लिए तैयार है ? बस, वह तो चाहते हैं– रुपयोँ से भरे ‘सूटकेस’ मिल जाए तो जो भी मन्त्री बन सकते हैं । इतिहास साक्षी है– अँगूठा छाप नेता, चुनाव में जनता से पराजित व्यक्ति, आपराधिक पृष्ठभूमि से आए लोग सभासद और मन्त्री बने हैं । इसीलिए तो जनता ने मांग किया है कि नेताओं की योग्यता संविधान में लिखी जाए । लेकिन हमारे नेता तर्क करते है– ‘राजनीतिक योग्यता को शैक्षिक योग्यता से तुलना नहीं किया जाएगा ।’ यह तो अपवाद की बात है । हाँ, कोई व्यक्ति अपवाद के रूप में शैक्षिक योग्यता न हो कर भी किसी भी क्षेत्र में उच्च स्थान हासिल कर सकते हैं । यह सिर्फ राजनीति में ही लागू नहीं होगा । विज्ञान, शिक्षा, प्रविधि, अध्यात्म, साहित्य जैसे विविध क्षेत्र में यह बात लागू होती है । इतिहास में भी इस तरह के कुछ व्यक्तियों ने समाज में अपनी योगदान दी है । लेकिन वर्तमान अवस्था में ‘सभासद तथा मन्त्री बनने के लिए शैक्षिक योग्यता आवश्यक नहीं है’ कहना गौरजिम्मेवार अभिव्यक्ति है । जिस उम्र में शैक्षिक योग्यता हासिल करना चाहिए था, उस उम्र में बन्द–हड़ताल, तोड़फोड़ और गुण्डागर्दी में उतरनेवालों से ऐसा ही जवाब आता है । और ऐसे नेताओं से प्राप्त कृपा के कारण ही आज बहुत नेताओं की पत्नी, प्रेमिका, भाई, समधी, बेटा … सभासद तथा मन्त्री बने है ।
निर्वाचन में थे्रेसहोल्ड रखने के लिए भी सुझाव आया है । इसी तरह के अन्य दर्जनों सुझाव हैं । लेकिन इस को सम्बोधन करने वाले राजनीतिक दल अपने–अपने स्वार्थ में ही केन्द्रित हैं । एक सत्य सब जानते हैं कि इस वक्त नेकपा एमाले के अध्यक्ष केपी ओली प्रधानमन्त्री बनने के लिए महीनों से लाइन में खड़े हैं । ओली चाहते हैं कि १६ बुँदे समझौता के अनुसार जितनी जल्दी हो सके संविधान जारी करके प्रधानमन्त्री बन जाएँ । इसीलिए उनकी प्राथमिकता जनता से प्राप्त सुझाव के प्रति नहीं है । इसी समय सबसे बड़ा दल नेपाली कांग्रेस भी पार्टी महाधिवेशन की तैयारी में हैं । उस पार्टी का एक समूह चाहता है कि पार्टी महाधिवेशन से आगे किसी भी हालात में संविधान जारी करना नहीं है । एमाओवादी और मधेशी जनअधिकार फोरम (लोकतान्त्रिक) का भी अपना–अपना स्वार्थ उसमें जुड़ा है । चार दलों के संयन्त्र से बाहर रहे अन्य दलों का कहना कुछ और ही है । लेकिन मुख्यतः कांग्रेस–एमाले के पार्टीगत अन्तरद्वन्द्ध के कारण ही श्रावण मसान्त को तय तिथि में संविधान जारी होने की सम्भावना नहीं है । कार्यतालिका प्रभावित होना इसका संकेत है । प्रारम्भिक मसौदा को अस्वीकार करते हुए आन्दोलन में जानेवाले राप्रपा नेपाल, मधेशवादी विभिन्न पार्टी, जनजाति समूह आदि के कारण परिस्थिति अधिक जटिल हो सकती है । यह सब इस बात का संकेत हैं कि– राजनीतिक अस्थिरता समाप्त होने वाली नहीं है । इसीलिए संविधान जारी करने के पक्ष में रहे वर्तमान राजनीकि नेतृत्व व्यक्तिगत और पार्टीगत स्वार्थ से ऊपर आना चाहिए । जिस का आधार प्रारम्भिक मसौदा में प्राप्त जनता का सुझाव ही हो सकता है -स्रोत;हिमालिनी
सुझाव संकलन के क्रम में आम जनता ने हिन्दू राष्ट्र, प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी प्रमुख (राष्ट्रपति वा प्रधानमन्त्री), सीमांकन सहित का संविधान, संघीय राज्य की कम संख्या (निर्धारित आठ प्रदेश से कम), नागरिकता की सहज व्यवस्था आदि के पक्ष में अपना सुझाव दिया है । जनता का यह सुझाव, गत जेठ २५ गते चार दलों के बीच हुए १६ बुँदे समझौता के विपरित है । इसीलिए ये चार दल जनता के सुझाव के प्रति गम्भीर नहीं दिखाई दे रहे है । वो १६ बुँदे समझौता के अनुसार ही नया संविधान जारी करना चाहते हैं । सुझाव संकलन के बाद एक प्रकार से नयाँ जनमत निर्माण हुआ है, उसके बाद भी १६ बुँदे ही महत्वपूर्ण कह कर हठ करना प्रजातान्त्रिक चरित्र नहीं है । इसीलिए चार दलों का एकपक्षीय क्रियाकलाप समस्या समाधान के प्रति गम्भीर नहीं दिखाई देता । जिसके चलते और भी अधिक राजनीतिक द्वन्द्व हो सकता है ।
हाँ, राज्य का कोई भी धर्म नहीं होता । राज्य के भीतर रहे सभी धर्मावलम्बी का संरक्षण करना राज्य का दायित्व बनता है । लेकिन बहुंख्यक हिन्दू धर्मावलम्बी (८० प्रतिशत से अधिक) रहे इस देश में उन लोगों की भावना को सम्बोधन नहीं करना घातक हो सकता है । एक निश्चित जाति, भाषा और समुदाय की पहचान संविधान में सुनिश्चित करने का प्रयास हो रहा है । लेकिन बहुसंख्यक हिन्दूओं की पहचान अस्वीकार करना कहाँ तक ना इन्साफी है ? अगर ऐसा होगा तो अवसरवादी तत्व सक्रिय होते हैं । और जनता में रहे हिदूत्व सम्बन्धी भावना को गलत प्रयोग हो सकता है । ऐसे लोग हिन्दूओं में रहे भावनात्मक आवेग को भड़का कर राजनीतिक उद्योग में स्थापित होना चाहते हैं । कमल थापा और खुमबहादुर खड्का जैसे कुछ नेता इस का संकेत भी दे चुके हंै । लेकिन सोलह बुँदे समझौता के पक्षधर एमाओवादी धर्म निरपेक्षता ही चाहता है । माओवादी जनता की भावना मुताबिक इस विषय को सम्बोधन करना नहीं चाहता ।
इसीतरह दूसरा विषय है, प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी के प्रति बढ़ती जनचाहना । नेपाल में दो दशक से संसदीय शासन प्रणाली प्रयोग में हैं । इतिहास साक्षी है कि २४ वर्ष से जारी इस संसदीय व्यवस्था में २१ बार प्रधानमन्त्री परिवर्तन हो चुका है । इसलिए जनता राजनीतिक स्थिरता चाहती है और पाँच साल तक एक ही पार्टी और व्यक्ति को वह सरकार में देखना चाहती हैं । संसदीय व्यवस्था के विकृत राजनीति से जनता आजादी चाहती है । इसीलिए तो जनता ने प्रत्यक्ष निर्वाचित कार्यकारी के पक्ष में अपना मत जाहिर किया । लेकिन संविधानसभा में रहे सब से बड़े दल नेपाली कांग्रेस इस प्रणाली के विपक्ष में हैं । उस पार्टी के शीर्षस्थ नेतृत्व को संसदीय प्रणाली के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता । इसी तरह नेकपा एमाले के वर्तमान नेतृत्व भी प्रत्यक्ष कार्यकारी के पक्ष में नहीं है, वह कांग्रेस के पक्ष में दिखाई देते हैं । इसलिए यह दो पार्टी जनता से प्राप्त सुझाव को अनदेखा कर रहे हैं । जिसके कारण आम जनता राजनीतिक दल के प्रति सकारात्मक नहीं है । जिस तरह हिन्दू धर्म के प्रति आस्थावान बहुसंख्य जनता आज कमल थापा और खुमबहादुर खड्का के प्रति आकर्षित हो रही है, उसी तरह कल वही जनता, प्रत्यक्ष कार्यकारी चुनने के उनकी अधिकार से वञ्चित रखने के कारण अन्यन्त्र भड़क सकते हैं । इस तथ्य को हमारे राजनीतिक दल भूल रहे हैं । लोकतन्त्र के नाम में चिल्ला–चिल्ला कर भाषण करनेवाले हमारे राजनीतिक दल और उनके नेता जनता से प्राप्त सुझाव को ही अस्वीकार करते हैं तो यह कैसा लोकतन्त्र ? यह प्रश्न उठ रहा है ।
इसी तरह जनता से प्राप्त तीसरा सुझाव है– सीमांकन–नामांकन सहित का संविधान आना चाहिए । अर्थात् सीमांकनविहीन संविधान जनता को स्वीकार्य नहीं है । लेकिन जनता से प्राप्त इस सुझाव के प्रति हमारे राजनीतिक दल गम्भीर नहीं हैं । सीमांकन सम्बन्धी विषय को लेकर कुछ मधेशवादी दलों ने मसौदा बहिष्कार किया है । सर्वोच्च अदालत ने भी सीमांकन विहीन संविधान जारी करने से पाबन्दी लगा दी है । लोकतन्त्र में सर्वोच्च अदालत द्वारा जारी फैसला को अस्वीकार करने वाले और जनता से प्राप्त सुझाव को भी सम्बोधन नहीं करनेवालें राजनीतिक दल और उनके नेता लोग कैसे प्रजातान्त्रिक हो सकते हैं ? इसीलिए जनता से प्राप्त महत्वपूर्ण सुझाव को सम्बोधन करना ही चाहिए । नहीं तो राजनीतिक दल के प्रति बढ़ते अविश्वास के कारण नयाँ विद्रोह जन्म ले सकता है ।
सोलह बुँदे समझौता में आठ प्रदेश का संघीय राज्य होने का दावा किया गया है । लेकिन जनता चाहती है कि उक्त संख्या कम किया जाए । जनता का मानना है कि नेपाल की भौगोलिक स्थिति और आर्थिक पूर्वाधार के कारण ज्यादा राज्य होना ठीक नहीं हो सकता । एक समय १४ संघीय राज्य बनाने के लिए तैयार एमाओवादी जनता से प्राप्त यह सुझाव गम्भीरता से नहीं ले रहा है । ऊपर में उल्लेखित सुझाव तो सभी का साझा सुझाव है । जाति, भाषा, समुदाय और वर्ग विशेष, पेशागत संघ–संगठन आदि ने भी अपनी–अपनी तरफ से सुझाव दिया है । उसमें से सबसे ज्यादा सुझाव नागरिकता के सम्बन्ध में हैं । विशेषतः महिला अधिकारकर्मी और मधेशवादी दल नागरिकता सम्बन्धी प्रावधान में असन्तुष्ट हैं । वे लोग मानते हैं कि अगर प्रारम्भिक मसौदा को ही संविधान बना दिया जाए तो लाखों व्यक्ति नागरिकता विहीन हो जाते हैं ।
इसीतरह, एक तरफ हिमाल, पहाड़ और तराई को मिला कर साझा प्रदेश बनाने के लिए सुझाव आया है तो वहीं उसके ठीक विपरित तराई के भू–भाग को पहाड़ से अलग रखने का सुझाव भी आया है । हैं तो दोनों नागरिक के ही सुझाव । लेकिन आपस में विरोधाभास इस तरह के सुझाव को सही सम्बोधन करना सिर्फ जटिल ही नहीं, असम्भव दिखाई देता है । क्योंकि एक सुझाव को सम्बोधन करना, दूसरे सुझाव के विरुद्ध हो जाता है । २०६२÷६३ में सम्पन्न जनआन्दोलन के बाद सरकार ने विभिन्न समूह से इस तरह के विवादास्पद समझौते कुछ ज्यादा ही किये हैं । वह सभी समझौता कार्यान्वयन करना असम्भव है । क्योंकि एक समझौता कार्यान्वयन करने से दूसरे को चोट पहुँचती है । विशेषतः विभिन्न समूह में विभाजित हो कर किया गया मधेश आन्दोलन (क्षेत्रीय आन्दोलन) और जनजाति आन्दोलन (जातीय आन्दोलन) के बाद हुए समझौता विवादास्पद है । ऐसा होना तत्कालीन राजनीतिक अदूरदर्शिता थी । आज वही राजनीतिक अदूरदर्शिता का शिकार बन रहा है, नेपाल । इसीलिए संविधान निर्माण करते वक्त भी इतिहास में हुए समझौता, वर्तमान की परिस्थिति और जनचाहना को मद्देनजर करते हुए सम्वेदनशील होना चाहिए, नहीं तो संविधान कार्यान्वयन होना मुश्किल है ।
इसी तरह दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव है– सभासद और मन्त्री बनने के लिए शैक्षिक योग्यता निर्धारण करना चाहिए । सब जानते हैं कि यह सुझाव हमारे वर्तमान नेताओं से सम्बोधन नहीं हो सकेगा । क्योंकि वर्तमान राजनीति में ऐसे नेताओं कि पकड़ है, जिस को भूखमरी से आत्महत्या करने के लिए बाध्य जनता की पीड़ा दिखाई नहीं देती । और ऐसे नेता पूर्वमन्त्री, प्रधानमन्त्री एवं सरकारी संयन्त्र में रहे उच्चपदस्थ व्यक्तियों को आजीवन सरकारी सेवा–सुविधा दिलाने के लिए मसौदा बनाते हैं । इस तरह के नेताओं से हम कैसे विश्वास करें कि वह अपनी योग्यता संविधान में लिखने के लिए तैयार है ? बस, वह तो चाहते हैं– रुपयोँ से भरे ‘सूटकेस’ मिल जाए तो जो भी मन्त्री बन सकते हैं । इतिहास साक्षी है– अँगूठा छाप नेता, चुनाव में जनता से पराजित व्यक्ति, आपराधिक पृष्ठभूमि से आए लोग सभासद और मन्त्री बने हैं । इसीलिए तो जनता ने मांग किया है कि नेताओं की योग्यता संविधान में लिखी जाए । लेकिन हमारे नेता तर्क करते है– ‘राजनीतिक योग्यता को शैक्षिक योग्यता से तुलना नहीं किया जाएगा ।’ यह तो अपवाद की बात है । हाँ, कोई व्यक्ति अपवाद के रूप में शैक्षिक योग्यता न हो कर भी किसी भी क्षेत्र में उच्च स्थान हासिल कर सकते हैं । यह सिर्फ राजनीति में ही लागू नहीं होगा । विज्ञान, शिक्षा, प्रविधि, अध्यात्म, साहित्य जैसे विविध क्षेत्र में यह बात लागू होती है । इतिहास में भी इस तरह के कुछ व्यक्तियों ने समाज में अपनी योगदान दी है । लेकिन वर्तमान अवस्था में ‘सभासद तथा मन्त्री बनने के लिए शैक्षिक योग्यता आवश्यक नहीं है’ कहना गौरजिम्मेवार अभिव्यक्ति है । जिस उम्र में शैक्षिक योग्यता हासिल करना चाहिए था, उस उम्र में बन्द–हड़ताल, तोड़फोड़ और गुण्डागर्दी में उतरनेवालों से ऐसा ही जवाब आता है । और ऐसे नेताओं से प्राप्त कृपा के कारण ही आज बहुत नेताओं की पत्नी, प्रेमिका, भाई, समधी, बेटा … सभासद तथा मन्त्री बने है ।
निर्वाचन में थे्रेसहोल्ड रखने के लिए भी सुझाव आया है । इसी तरह के अन्य दर्जनों सुझाव हैं । लेकिन इस को सम्बोधन करने वाले राजनीतिक दल अपने–अपने स्वार्थ में ही केन्द्रित हैं । एक सत्य सब जानते हैं कि इस वक्त नेकपा एमाले के अध्यक्ष केपी ओली प्रधानमन्त्री बनने के लिए महीनों से लाइन में खड़े हैं । ओली चाहते हैं कि १६ बुँदे समझौता के अनुसार जितनी जल्दी हो सके संविधान जारी करके प्रधानमन्त्री बन जाएँ । इसीलिए उनकी प्राथमिकता जनता से प्राप्त सुझाव के प्रति नहीं है । इसी समय सबसे बड़ा दल नेपाली कांग्रेस भी पार्टी महाधिवेशन की तैयारी में हैं । उस पार्टी का एक समूह चाहता है कि पार्टी महाधिवेशन से आगे किसी भी हालात में संविधान जारी करना नहीं है । एमाओवादी और मधेशी जनअधिकार फोरम (लोकतान्त्रिक) का भी अपना–अपना स्वार्थ उसमें जुड़ा है । चार दलों के संयन्त्र से बाहर रहे अन्य दलों का कहना कुछ और ही है । लेकिन मुख्यतः कांग्रेस–एमाले के पार्टीगत अन्तरद्वन्द्ध के कारण ही श्रावण मसान्त को तय तिथि में संविधान जारी होने की सम्भावना नहीं है । कार्यतालिका प्रभावित होना इसका संकेत है । प्रारम्भिक मसौदा को अस्वीकार करते हुए आन्दोलन में जानेवाले राप्रपा नेपाल, मधेशवादी विभिन्न पार्टी, जनजाति समूह आदि के कारण परिस्थिति अधिक जटिल हो सकती है । यह सब इस बात का संकेत हैं कि– राजनीतिक अस्थिरता समाप्त होने वाली नहीं है । इसीलिए संविधान जारी करने के पक्ष में रहे वर्तमान राजनीकि नेतृत्व व्यक्तिगत और पार्टीगत स्वार्थ से ऊपर आना चाहिए । जिस का आधार प्रारम्भिक मसौदा में प्राप्त जनता का सुझाव ही हो सकता है -स्रोत;हिमालिनी